Sunday, January 20, 2013

स्खलन

ठहराव इतिहास है
वर्तमान,चुटकी भर दरारें
जो धूप पीनें से पैदा हुयी हैं
गंगा तीरे ...
छाती के रोओं में क़ैद हैं कई शिराएँ
कुछ मुक्त हैं उन्मुक्त रोम से
बांध सदृश खड़ा हो जाना चाहता हूँ
सारा प्रयास बिखर जाने का आमंत्रण साबित होती है.
अंकुर में जड़ स्पंदित हो रहा है
ह्रदय के साथ-साथ,
जड़ों का फैलाव मिटटी से अधिक है
आकाश में .
स्वप्न-रूपी भगनासे नें अँगडाई ली
किले के द्वार पर हलचल हुयी
गंग-तरंग सम
(सा-रे-गा-मा...............)
एक मुट्ठी धूप पलकों तले प्रतीक्षारत है
बात बेबात उभर आते
तालव्य श सा .
पेड़ की टहनियाँ नए झूलों से गुलज़ार हैं
फुहारों नें सावन को क़ैद कर लिया,
बहाव में कजरी मुक्त है,

तूफ़ान में कहानियों के साथ सपनें भी बह जाते हैं.