Friday, January 18, 2013

नीम का पेड़


मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन?
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन?

सदियों - सदियों वही तमाशा
रस्ता - रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं
खो जाता है जाने कौन?

क्या जाने - क्या बोल रहा था
सरहद, प्यार, किताबें खून,
कल मेरी नींदों में छुपकर
जाग रहा था जाने कौन?

मैं उसकी परछाई हूँ या
वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है
मेरे जैसा जाने कौन?

किरण - किरण अलसाता सूरज
पलक - पलक खुलती नींदें
धीमे - धीमे बिखर रहा है
ज़र्रा - ज़र्रा जाने कौन?


ये शब्द उम्र के पांचवें -छठे पायदान की याद दिलाते हैं ,जब मैं औधा लटका हुआ था बया के घोंसले की तरह; जब ये शब्द कान में सुरों की नाव चढ़ कर उतरते थे तब बाल-मन बुधई के  काँधे चढ़; पेड़ के उस पार की दुनिया देखने को ललक उठता था भले ही धुंध में लिपटी आभासी आकृति ही क्यूँ न हो .
घोंसले बढ़ते नहीं,उम्र के पाँव चलना जानते हैं-बढ़ना भी .
चलते हुए बढ़ने के बावजूद; कान ठिठकना जानते हैं, ये शायद इसी प्रश्न की ही ठसक है जो आज भी अपना जवाब तलाश रही है कि,


मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन?
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन?
सुरों के नाव पर चढ़ कर .....................

प्रेम '