Saturday, February 9, 2013

बू


पुरखों के लिए  प्रवेश-निषेध का बोर्ड है
मेरा ये कथन
कि तुम असफल रहे
कि मेरे आज पर तुम्हारा कोई प्रभाव नहीं है
सिवाय तालाब के तलवे तले काई के
या शायद उससे भी कम.
आग की लपटों के भीतर मेरे पसीनें की बू है
बू से कई सवाल उठते हैं
जवाबों की प्रतीक्षा में,
ज़िंदगियाँ मौत के तईं बटोही की शक्ल ओढ़े
प्रतीक्षित हैं
उत्तरों के अवतरित होनें तक.
वक़्त आदमी है
जो धुआँ-२ होकर उम्मीद को नाउम्मीदी में तब्दील होते देखता है
पढ़े जा चुके किताब की तरह .
खयालों के सफीनें से कई कहानियाँ
कुलबुलाती सी
समन्दरों के ज्वार पर अपना स्थान घेरती भी हैं
लेकिन भाटों के उतार पर भोर का चाँद हो जाते हैं
गोया बीती रात असबाब हो
आनें वाले दिवस का .
सूरज मोरपंखों में क़ैद है
मुक्ति हेतु,
परिंदों का मुन्तजिर है  
जिनकी उड़ानें मरुथल के थपेड़ों से मुक्त होंगीं..............