Friday, March 8, 2013

फिसलन का इतिहास



मनुष्य-सभ्यता के फिसलन के इतिहास का प्रारंभ
मनुष्य के जन्म से पूर्व अस्तित्व प्राप्त
खराद पर चढ़ा हुआ मनुष्य
प्रगतिशीलता के प्रगति की प्रतीक्षा में कविता का काव्य है
चमड़ियों का फिसलना चुटकी है।
सिली हुयी आँखों की अपनीं जुबानें हैं
चुप्प जुबानें,
स्वरों के इंतज़ार में मुर्दा हो आये हैं
एक-एक व्यंजन,
शब्द बेआवाज़ हैं
समय की तरह।
मेरी गवाही के मायनें
तुम्हें नहीं मालूम
मुझे भी नहीं
इसके बावजूद मैं गवाह हूँ,
कि कैसे मार दिए गए बच्चे,बूढ़े,औरतें
उन्हीं ज़मीनों पर 
जहाँ दफनाये गए हैं उनके पूर्वज
जहाँ पहले भी मातमों के दौर आये होंगे।
मैं जानता हूँ कि मातमी शोर
सुर-संगीत को भेद नहीं सकते
मैं गवाह हूँ अपनें सही होनें का
मैं सत्य प्रत्ययों का धारक हूँ
धन्यवाद बधाइयों के लिए
मैं सत्य प्रत्यय का धारक हूँ
हा.हा.हा.हा......
बसन्ती सावन की टीस धुंवासी है,
चूल्हों में मिर्च की खरास नें व्यस्त कर दिया,
मिट्टी पानी हो गयी .
पानी बर्फ;
मदार के पत्तों नें बर्फ को सोख लिया,
आखिरी बसंत की प्रतीक्षा में ........................