Monday, March 11, 2013

आखिरी गाँठ

समेट लिए गए जाल सुसता रहे हैं
कई निशानियाँ समेटे,
कई ज़िंदगियाँ बूँदों की कब्रगाह पर करवट फेरे
पूजा का दूब हो आये हैं।
पतवारी हाँथों की छुवन
क्षितिज का छत हो जाना है
दीवार-विहीन छत।
जालों नें समुद्र से ख़ामोशी चुरा ली
समंदरी-मातम नें आकाश को गीला कर दिया।
सितारे झुरमुटों में दुबके हुए
सतह को ख़ामोशी दान देते हैं
हँथेली पर अंकुरित होते हुए।
जलपरियों के ख्वाब पक्षी हो आये हैं,
अतीत के लिए;
अँगूठी की राह बुलंद दरवाज़ा के मानिंद   
किरण-मार्ग भी।
आत्मा की आखिरी निशानी
बेनिशाँ हो गयी
आत्मा सरीखी,
स्मृतियाँ निर्वस्त्र हैं
निर्ग्रन्थ है आखिरी गाँठ
टूटे हुए चोंचों पर ज़िम्मेदारी है 
बर्फ से सफेदी चुरानें की .............