Tuesday, May 14, 2013

फ़तह

शब्दों से रूबरू
मैं किसी शापित की तरह
गुँथा हुआ समय से
स्वयं के सापेक्ष,
नसों को सिकुड़ते महसूसता हूँ
अजगर के शिकार की तरह।
मैं पराभूत,
कोई ठौर तलाशता हूँ
भागता हुआ,
गंगा के विशाल पाट
यमुना की अतल गहराइयाँ
या कोई बोधि-वृक्ष
खोज है मील के पत्थरों की
रास्ते के दो छोर की भी,  
न जानें क्यूँ?
हर बार मेरी तलाश
मुझसे शुरू होती है
मुझ तक ख़त्म होनें के लिए।
अपराधों की श्रृंखला
मुझ तक विश्राम पाती है
दोनों छोर पर,
मैनें बंद कर रखा है
हुक्का-पानी स्वयं का,
मैं बेदखल हूँ स्वयं से,
एक छोर नें दूसरे पर फ़तह पाया।