Saturday, October 12, 2013

निरा …………

उस रोज बारिश के पार
दिन के खांचे से हवा चली
रात तक
खिड़की के इस पार
मज़ा आ गया
बतियाती पत्तियों को भी।
अँधेरे की कालिमा पलकों के दोनों ही ओर
रोशनी विहीन दिए सा
है भी
नहीं भी,
होनापन और कुछ नहीं
बकवास के सिवाय
नहीं होने के सापेक्ष,
शक्लों का ख़याल
ख़याल के शक्ल की ही तरह
निरा …………। .