Thursday, July 31, 2014

कतरे गए पंख

यादों के पंख क़तर दिए गए हैं,
डूबना
उतरा आना
फिर डूब जाना
फिर भी कहीं कोशिश साबुत है
सतह छू लेनें की
लौटती साँस के सहारे।
कोई भी रास्ता
न बड़ा होता है
न ही छोटा
उखड़ती साँसें रास्ते को बड़ा कर देती हैं।
सामूहिक आत्महत्या के कगार पर
मैं,
देखता हूँ सारा समाज स्वयं में
उन्हें,
जो बेच देना चाहते हैं आखिरी बस*
उतर आया आखिरी यात्री भी
(हाँ ,हाँ जद्दोजेहद करते तुम भी),
कश्मीर के बच्चे उल्टियाँ करते हैं मवादों की,
फ़लस्तीनी भी,
इराक के घावों पर फँफूद उग आये हैं,
हराम बोको हराम को मवाद की प्यास लग आयी है।
कोठों के झरोखे थामे लड़कियाँ
फाड़ दी गयी हैं
जिस्म से
मन से भी,
मूर्खों नें सियासत रची
हम उल्लू बन गए।
नीलाम हो चुके जंगलों में दफनाए गए हैं
हमारे दूध के दाँत,
दरक आये पहाड़ों नें समेट लिया है वो जगह
जहाँ हमनें कपाल-क्रिया की थी
पूर्वजों की,
सुगबुगाहट है जनता के मध्य।
नाग की पीठ हमें खींचती है
ताकि डँस सके,
बारूद की चादर तले सो रही हैं
कई नंगी देह
जिन्हें फाड़ डाला गया चादर की तरह
मेरे जैसों द्वारा।





*आखिरी बस ,आखिरी साँस के सन्दर्भ में प्रयुक्त है।