Monday, October 27, 2014

विकट-विहीन विकटता




स्वतंत्र समाज का परतंत्र हिस्सा
मैं,
देखना चाहता हूँ
इस विकट-विहीन विकटता को
कि कैसे मैं आवरित हूँ
समाज की स्वतंत्रता के आवरण से।
सीमायें अतिक्रमित होती हैं
कहीं मैं मुट्ठी भर तो नहीं ?
फ़ैली हुयी मुट्ठी
समेटना चाहती है हरेक उच्छ्वास
स्मृति-विस्मृति
श्रद्धा-अश्रद्धा,
आंसुओं के क़तरे उत्तरदायी नहीं हैं
पारिभाषिक शब्द के प्रति।
प्रत्यय दगाबाज हैं मुझसे
हर चीज मुझसे बँधी है
हर चीज नें मुझे बाँधा है
मैं जन्मा हूँ उससे
जो मैं हूँ।
पालकी पर बैठा मैं
भविष्य का रेशा-रेशा भोगता हूँ
समन्दर पर धर देना चाहता हूँ
पहाड़ों को
सारे पहाड़ समन्दर हो गए
बाबा कहते थे........
उजाड़ता के लंगर चलते हैं
निर्जन घाटियों में
नदियों नें ढहा दिए सारे पुल
घाटों की मिट्टी सनी है
स्वप्न-पूर्तियों से
उल्लुओं के गीत कहानी हैं
जिन्हें मैनें लिखा था
कई साल पहले।
बंद कमरे की हवा का प्रवाह
पी गया है कोई ऋषि
दरिया की नियति थी
रेत हो जाना
मरुभूमि की गवाही है
भीगता रहा मैं इन रेतीले फुहारों में
कई साल पहले।
दोआब फैलना चाहता है
सिमटना भी
नदियाँ तंग करती हैं उसे
उगलते-निगलते।