एक आवाज़
कहूँ कि कूकती आवाज़
सुदूर बिखर- बिखर आते तारों की आवाजाही
इतनें पास कि जैसे मैं ही हूँ
खर्च होता हुआ
खुद के लिए
ठहरी हुयी दिन की उदास गति
चकरघिन्नी पर
प्रेम के बाद का क्षण
कभी कभी पहले का भी
लबालब भरी नालियाँ
सूख आये नलकूप उदास हैं
शायद......……।
गिनती के पाँव है मेरी ज़मीन
मेरा अथाह आसमान द्वंद्व रचता है
मन कैसे ना देखता उसे
जो स्पष्ट था चकरघिन्नी पर
अनुभूति अस्पष्ट थी।
बगैर प्रेम के जीवन जैसे घासविहीन मैदान,
स्मृतियों में भावना
चिंगारी आग पर
बहता हुआ कुछ पत्थरों पर
ओस घास पर
क़तरों में घुली-मिली
कितना कठिन था तुम्हें देखना
अलग-अलग।
अमावस की रात
तुम्हारे कपोल
जासूस हैं उँगली के पोर,
तुम्हारी सुगंध मेरी अपनीं है
झूलता हूँ मैं उसी शाख पर
जो अप्रत्यक्ष थी कल तक
मैं पहचानता नहीं अपनीं ही आवाज़
आवाज़ों की बारिश मौन रचती है
मौन गर्भ है............. का,
शायद ये आखिरी प्रेम हो
प्रेम आत्मा की प्यास है
शरीर की भूँख नहीं
शायद ये पहला प्रेम हो।
