Tuesday, May 19, 2015

बहस


परछाइयों की उजास में दुबकी हुयी  
बंद दरवाजों के पीछे की काली देह
वाबस्ता हैं चिंदी-२ होती कहानियों से।
सिमट आते हैं पहाड़;
खाइयों में
नयी खाईयां रचते
सहेजते हैं शेष को,
गर्व जनती गर्भिणी
देश-काल सापेक्ष
सजाये गए हैं पाँव
तोड़ दी गयी उँगलियों के रक्त से।
धुवाँसी रोशनी बेतरतीब है
तमस-ज्योति में
उलझी-२ डोर
सिराविहीन,
आँखों पर प्रकाश की फाँस
कर्ण के कवच सा
जो उत्सुक है सबसे ऊँचे टीले की खोज में।
नदियों  के तह्खानें सुरक्षित हैं
रेशे-2 उधड़  आते हैं अतीत के
हठधर्मिता नें विगताग्रह के गाँठ खोले
सुलझ-उलझ कर,
अँजुरी का भवितव्य गँठधर्मी है  
सारी परिभाषाएं थोथी हो जाती हैं शब्द पाकर।
कठोरता निर्लज्ज है
बाशर्म की विरोधी,
बेहोशी तमगा है बुद्धिमत्ता का
खुद को बेचनें की आवाज़ में मशगूल हैं
कोठों  के मुँडेर
आओ!
नोच लूँ मैं तुम्हें
तुम बिखेर दो मेरे चीथड़े
नहीं चाहिए हमें इस रात की कोई सुबह
चलते-फिरते देह जीवित नहीं हैं
अगर मन मर चुके हों।
बटुवे की आखिरी थाती
कंजूस हो उठती है सहसा,
नियतिवश।