Thursday, February 10, 2022

तुम्हारे लिए


गुजरा है 
ना जाने कितनी शरद पूर्णिमा से गुजरा है 
मेरा संगम तट,
जिसके ठीक सामने के  घाट पर बैठकर 
तुमने खिंचवाई थी 
अपनी फोटो,
रेत पर आज भी हैं निशान  
तुम्हारी उँगलियों के। 
इस शरद पूर्णिमा मैं होना चाहता हूँ 
उसी जगह 
जहाँ कुमारिल को मिला ज्ञान 
शंकर से,
जहाँ लुटा देता था अपना सर्वस्व 
हर्षवर्धन,
जहाँ नाव से उतरते हुए लचक गयी थी कमर 
सीता की, 
हर बार थाम लेना चाहता हूँ 
तुम्हारा हाथ 
राम की तरह। 
तुम्हारी हथेलियों  के कटोरे में 
पकाऊँगा खीर 
मन की आँच पर,
जिसे खाकर हो जाओगी अमर
मेरे साथ,
उसी संगम के घाट की तरह,
जिससे मिलती है गर्माहट 
सूरज को 
चाँद पाता है ठंढक 
उसी रेत से
जिस पर छप गए हैं निशान 
तुम्हारी हथेलियों के।