Monday, March 18, 2013

रूपान्तरण

एक मुट्ठी समय में कुलबुलाती,
मृत्यु के मानदंड पर बेमानी ठहरा दी गयी
मानेदार कहानी
मुट्ठियों के खुलने की प्रतीक्षा में
दिन का जुगनूँ  है।
खूबसूरत तस्वीर निरपेक्ष है 
इन कहानियों से
द्वंद्व साहित्य की अंगड़ाई है  
शब्दकोष की नहीं,
झर आये पत्तों नें
गर्भ खाली कर दिया
बारिशें अथक लोरियाँ हैं
थकी हुयी रातों की,
सूरज छाँह में सुरक्षित है।
स्वप्न-गर्भ में स्वप्न-शिशु नें जन्म पाया 
फैलता ही जा रहा है पीपल
बगैर बीज के, 
आँखा शाख की सम्भावना है। 
हरेक बोली दरअसल सीटियाँ हैं 
व्याकरण की चपलता रूपान्तरण है,  
सीटियों का शांति-पाठ में।