Wednesday, June 12, 2013

स्वीकृत समझौता

मैं गवाह हूँ,
आदमी-आदमी के मध्य
स्वीकृत समझौतों का,
फफोलों पर उद्धृत सूक्तियों सरीखा,
सपनीली राह मुझे वास्तविक दिखती है
जब-जब मैं सपनें जीता हूँ।
मेरी स्मृतियों में पुस्तकीय अवधारणायें धधकती हैं
गर्मियों में सूख आये कंठ की तरह
प्रतिकूल ज़मीन की तलाश में,
गनेरियों की फूटती सिसकियाँ
पक आई फसलें
आधारशिला हैं;
स्वप्नभूमि का।  
मेरे गीत खराद हैं
"जो है" के लिए,
खाद-पानी स्वप्न का,
आँख के बाहर भी
अंतरंग भी।
आँख पर उग आये कान
तिनके की पैदाइश हैं,
सम्भावना सिमट आती है सूफी आलाप में।