Wednesday, August 2, 2023

मां के लिए~

कल रात आई थीं तुम्हारी मां 

दबे पांव

मेरे कमरे में

निहारती रहीं चुपचाप
मेरी आदतों को
हरसिंगार का फूल झर गया,
झांकती हैं तुम्हारी मां
तुम्हारे चेहरे से
मुस्कुराया करो।
तुम्हें पता है
झांकता है चांद
उनकी पलकों से,
छू लिया था मेरा माथा
मेरी मां की तरह,
आधी रात बारिश हो गई
महुवे की।
रह गई हैं मेरे पास
सीपी ने समंदर को बांध लिया
अपनी अंजुरी में ,
किसी रोज चूम लेना
मेरी हंथेली
वहीं वो सो रही हैं।





Thursday, February 10, 2022

तुम्हारे लिए


गुजरा है 
ना जाने कितनी शरद पूर्णिमा से गुजरा है 
मेरा संगम तट,
जिसके ठीक सामने के  घाट पर बैठकर 
तुमने खिंचवाई थी 
अपनी फोटो,
रेत पर आज भी हैं निशान  
तुम्हारी उँगलियों के। 
इस शरद पूर्णिमा मैं होना चाहता हूँ 
उसी जगह 
जहाँ कुमारिल को मिला ज्ञान 
शंकर से,
जहाँ लुटा देता था अपना सर्वस्व 
हर्षवर्धन,
जहाँ नाव से उतरते हुए लचक गयी थी कमर 
सीता की, 
हर बार थाम लेना चाहता हूँ 
तुम्हारा हाथ 
राम की तरह। 
तुम्हारी हथेलियों  के कटोरे में 
पकाऊँगा खीर 
मन की आँच पर,
जिसे खाकर हो जाओगी अमर
मेरे साथ,
उसी संगम के घाट की तरह,
जिससे मिलती है गर्माहट 
सूरज को 
चाँद पाता है ठंढक 
उसी रेत से
जिस पर छप गए हैं निशान 
तुम्हारी हथेलियों के।  



Friday, July 8, 2016

बुंद समानीं समद में




ह्रदय की अँजुरी भर प्यास
मस्तिष्क नें सोख ली
मस्तिष्क की भूँख तृप्त हो गयी
ह्रदय के चूल्हे पर 
सारी सँवेदनायें विकलाँग हो गयीं
कुछ है जो कैसे कहा जाये ?
एक लम्बा गद्य
कविता हो गया
आसाढ़ की दुपहरी सावन हो गयी
समेट लिया सब कुछ को एक मुट्ठी पानी नें
डूबने वाले डूब आये
मुनादी कर दो
किसी के नमाज़ का वक़्त हो आया है
कुछ है जो कैसे सुना जाये ?
भीतर का तहखाना
जैसे डेहरी का पाँवदान
अनमोल बेमोल हो गए
हो जानें दो भोथरा हर एक धार को
हर एक उजाला अँधेरा ही था 
उजाले ने अनुनाद की
गौरैया की आलाप एक नयी रागमाला थी
हवाओं की छेनियाँ
बुरूश से
कुछ है जो कैसे देखा जाये ?
इच्छाओं का समन्दर लहरा उठता है हँथेली पर
आसमान खो गया आसमान में
निचोड़ लिए गए बादल पोखरे में
सबसे ऊँची अटारी पर भी गिरती है निमकौर
पूरी छत खट्टी हो गयी
पेड़ पेड़ हो गए
नदी हो गयी नदी
सूरज,चाँद,तारा  खुद ही खुद हो गए
कुछ है जो कैसे हुआ जाये?


~~~~~

Tuesday, May 19, 2015

बहस


परछाइयों की उजास में दुबकी हुयी  
बंद दरवाजों के पीछे की काली देह
वाबस्ता हैं चिंदी-२ होती कहानियों से।
सिमट आते हैं पहाड़;
खाइयों में
नयी खाईयां रचते
सहेजते हैं शेष को,
गर्व जनती गर्भिणी
देश-काल सापेक्ष
सजाये गए हैं पाँव
तोड़ दी गयी उँगलियों के रक्त से।
धुवाँसी रोशनी बेतरतीब है
तमस-ज्योति में
उलझी-२ डोर
सिराविहीन,
आँखों पर प्रकाश की फाँस
कर्ण के कवच सा
जो उत्सुक है सबसे ऊँचे टीले की खोज में।
नदियों  के तह्खानें सुरक्षित हैं
रेशे-2 उधड़  आते हैं अतीत के
हठधर्मिता नें विगताग्रह के गाँठ खोले
सुलझ-उलझ कर,
अँजुरी का भवितव्य गँठधर्मी है  
सारी परिभाषाएं थोथी हो जाती हैं शब्द पाकर।
कठोरता निर्लज्ज है
बाशर्म की विरोधी,
बेहोशी तमगा है बुद्धिमत्ता का
खुद को बेचनें की आवाज़ में मशगूल हैं
कोठों  के मुँडेर
आओ!
नोच लूँ मैं तुम्हें
तुम बिखेर दो मेरे चीथड़े
नहीं चाहिए हमें इस रात की कोई सुबह
चलते-फिरते देह जीवित नहीं हैं
अगर मन मर चुके हों।
बटुवे की आखिरी थाती
कंजूस हो उठती है सहसा,
नियतिवश।   

Monday, January 5, 2015

पोंगरी




एक आवाज़
कहूँ कि कूकती आवाज़
सुदूर बिखर- बिखर आते तारों की आवाजाही
इतनें पास कि जैसे मैं ही हूँ
खर्च होता हुआ
खुद के लिए
ठहरी हुयी दिन की उदास गति
चकरघिन्नी पर
प्रेम के बाद का क्षण
कभी कभी पहले का भी
लबालब भरी नालियाँ
सूख आये  नलकूप उदास हैं
शायद......……।
गिनती के पाँव है मेरी ज़मीन
मेरा अथाह आसमान द्वंद्व रचता  है
मन कैसे ना देखता उसे
जो स्पष्ट था चकरघिन्नी पर
अनुभूति अस्पष्ट थी।
बगैर प्रेम के जीवन जैसे घासविहीन मैदान,
स्मृतियों में भावना
चिंगारी आग पर
बहता हुआ कुछ पत्थरों पर
ओस घास पर 
क़तरों में घुली-मिली
कितना कठिन था तुम्हें देखना
अलग-अलग।  
अमावस की रात
तुम्हारे कपोल
जासूस हैं उँगली के पोर,
तुम्हारी सुगंध मेरी अपनीं है
झूलता हूँ मैं उसी शाख पर
जो अप्रत्यक्ष थी कल तक
मैं पहचानता नहीं अपनीं ही आवाज़
आवाज़ों की बारिश मौन रचती है
मौन गर्भ है............. का,     
शायद ये आखिरी प्रेम हो 
प्रेम आत्मा की प्यास है
शरीर की भूँख नहीं 
शायद ये पहला प्रेम हो। 
 

Monday, October 27, 2014

विकट-विहीन विकटता




स्वतंत्र समाज का परतंत्र हिस्सा
मैं,
देखना चाहता हूँ
इस विकट-विहीन विकटता को
कि कैसे मैं आवरित हूँ
समाज की स्वतंत्रता के आवरण से।
सीमायें अतिक्रमित होती हैं
कहीं मैं मुट्ठी भर तो नहीं ?
फ़ैली हुयी मुट्ठी
समेटना चाहती है हरेक उच्छ्वास
स्मृति-विस्मृति
श्रद्धा-अश्रद्धा,
आंसुओं के क़तरे उत्तरदायी नहीं हैं
पारिभाषिक शब्द के प्रति।
प्रत्यय दगाबाज हैं मुझसे
हर चीज मुझसे बँधी है
हर चीज नें मुझे बाँधा है
मैं जन्मा हूँ उससे
जो मैं हूँ।
पालकी पर बैठा मैं
भविष्य का रेशा-रेशा भोगता हूँ
समन्दर पर धर देना चाहता हूँ
पहाड़ों को
सारे पहाड़ समन्दर हो गए
बाबा कहते थे........
उजाड़ता के लंगर चलते हैं
निर्जन घाटियों में
नदियों नें ढहा दिए सारे पुल
घाटों की मिट्टी सनी है
स्वप्न-पूर्तियों से
उल्लुओं के गीत कहानी हैं
जिन्हें मैनें लिखा था
कई साल पहले।
बंद कमरे की हवा का प्रवाह
पी गया है कोई ऋषि
दरिया की नियति थी
रेत हो जाना
मरुभूमि की गवाही है
भीगता रहा मैं इन रेतीले फुहारों में
कई साल पहले।
दोआब फैलना चाहता है
सिमटना भी
नदियाँ तंग करती हैं उसे
उगलते-निगलते।  
  

कौन ?


झरनें की आवाज़
पत्थर
पानी।